ख़ुश मिज़ाजी, चटोरी ज़ुबान और लखनऊ की वकालत, भीड़ में लखनवियों को कुछ ऐसे पहचान सकते हैं आप!

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  अमा लखनऊ वाले दुनिया में कहीं भी हों, ये 10 बातें बता देती हैं कि वो लखनवी हैं!  
 
    
 
  

ये लखनऊ वाले पूरे देश में ख़ुशबू की तरह फैले हुए है. वैसे ख़ुशबू की जगह मैं रायता ​भी लिख सकता था लेकिन क्या करूं बचपन से लखनऊ का नमक और कबाब दोनो खाया है. एक सर्वे में पाया गया था कि लखनऊ भारत का दूसरा सबसे ख़ुश शहर है, हो भी क्यों ना हम बेवजह ख़ुश रहना जो जानते हैं. एक लखनऊ वाले को दिल्ली में कुतुब मिनार या मुम्बई में गेट वे आॅफ़ इंडिया देखकर उतनी खुशी नहीं होती जितनी वहां UP 32 की गाड़ी देख कर होती है.  Read More

  
     
  ये 44 फ़ोटोज़ बस झलकियां हैं सदी के सबसे चार्मिंग और हैंडसम एक्टर, धर्मेंद्र की  
 
    
 
  

'बेग़म इश्क़ का मज़ा ही चुपके-चुपके करने में है'... 'पहले एक हिन्दुस्तानी को समझ लो, हिन्दी अपनेआप आ जाएगी'. ये मज़ेदार डायलॉग्स हैं उस अभिनेता के जिनके नाम में ही वज़न है. नहीं समझे? कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जाऊंगा... अब तो समझ ही गए होगे? धर्मेंद्र बस नाम ही काफ़ी है. बॉलीवुड में इन्हें 'गरम धरम' के नाम से भी जाता है. बॉलीवुड में 50 से भी ज़्यादा सालों से जुड़े रहे धर्मेंद्र का अपना ही जलवा है. चाहे उनका डायलॉग बोलने का अंदाज़ हो या उनके गज़ब के डांस स्टेप्स.  Read More

  
 
  

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यादों में समा चुके सिंगल स्क्रीन थिएटर्स की ये फ़ोटोज़ कहती हैं, 'पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त'

देश की राजधानी दिल्ली से ले कर छोटे-बड़े कस्बों के हर दूसरे मोड़ पर आज शॉपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स देखने को मिल जाते हैं. इन शॉपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स के ज़माने में सिंगल स्क्रीन थिएटर तो जैसे गायब से हो गए हैं, पर एक दौर था जब हर बड़े स्टार की फ़िल्म से लेकर बड़े-बड़े नाटक सिंगल स्क्रीन थिएटर पर ही खेले जाते थे. दिल्ली में भी मंदी की वजह से ऐतिहासिक 'रीगल' सिनेमा बंद हो गया, जिसके साथ ही देश की राजधानी से सिंगल थिएटर स्क्रीन का सुनहरा अध्याय भी इतिहास के पन्नों में समा गया.


  
  


स्वतंत्र, विद्रोही और अपनी शर्तों पर जीने वाली. अनुराग कश्यप की फ़िल्मों की अदाकाराएं वास्तविकता के करीब होती हैं

फ़िल्मों में महिलाओं के पात्रों की प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. कमर्शियल सिनेमा और आर्ट सिनेमा में तमाम तरह का विरोधाभास देखने को मिला है. बॉलीवुड में बीच-बीच में महिला प्रधान फ़िल्में देखने को मिलती रही हैं लेकिन कमर्शियल सिनेमा ने कहीं न कहीं अदाकाराओं को नाचने-गाने या शोपीस तक ही सीमित कर दिया है.


  
 
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